एक ऐसा शहर जो न केवल महाराष्ट्र के भूगोल में बल्कि भारत की आत्मा में एक रूहानी मुकाम रखता है। यह शहर महज़ ईंटों, सड़कों और इमारतों का जमावड़ा नहीं, बल्कि एक ज़िंदा अहसास है – जो हवाओं में बसी है, जो हर सास में महसूस होती है, जो हर इबादत में समाई है। यह वही नांदेड है जिसे दुनिया “सिखों की काशी” के नाम से जानती है, और जहां का कण-कण गुरुवाणी के प्रकाश से जगमगाता है।
जब मैं अपनी कलम उठाता हूं और नांदेड का ज़िक्र करता हूं, तो मुझे महज़ एक शहर नहीं दिखता, बल्कि एक अहसास झलकता है – जिसमें इतिहास की गूंज, भक्ति की सरगम, और मौसिकी की लहर एक साथ बहती है।

नांदेड की हवाओं में कुछ तो ऐसा है कि जो एक बार यहां की फिज़ा में सांस ले, वो इसे कभी भूल नहीं सकता। यह हवा महज़ ऑक्सीजन नहीं, बल्कि इश्क़ की खुशबू, अरदास की तपिश और गुरुओं की रहमत से महकती है। बारिश के बाद जब ज़मीन से उठती सोंधी-सोंधी मिट्टी की महक मिलती है इस हवाओं से, तो ऐसा लगता है जैसे खुद खुदा ने क़ुदरत को क़लाम बना कर फिज़ाओं में बिखेर दिया हो।
यह शहर रूह को छू लेता है। सुबह की सैर में जब सूरज की पहली किरण गोदावरी के किनारे बिखरती है, तब लगता है कि वक़्त भी यहीं ठहर गया है। यहाँ के हर पेड़, हर गली, हर पत्थर में एक किस्सा है – कोई गुरू की सेवा का, कोई शहीद की कुर्बानी का, और कोई सच्चे इश्क़ की पहचान का।

नांदेड की सबसे बड़ी पहचान है – तख़्त श्री हज़ूर साहिब। यह वही मुक़द्दस जगह है जहां दसवें पातशाह, श्री गुरु गोबिंद सिंघ जी महाराज ने अपना अंतिम सांस लिया और सिख पंथ को ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के रूप में अंतिम गुरु सौंपा। यह जगह महज़ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि पूरे सिख समुदाय की रूहानी धड़कन है।
तख़्त साहिब के दर्शन करने वालों की आँखों में जो नमी होती है, वो सिर्फ श्रद्धा की नहीं, बल्कि उस विरासत की होती है जो हमें इंसानियत, वीरता, त्याग और सच्चाई की राह दिखाती है। रात में जब तख़्त से अरदास की आवाज़ उठती है, तो पूरे शहर पर एक पाक सुकून उतरता है।

नांदेड न केवल धार्मिक दृष्टि से महान है, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बेहद समृद्ध है। यह शहर सदियों से मराठा, निज़ाम और सिख प्रभावों का गवाह रहा है। यहाँ का खानपान, बोली, पहनावा और जीवनशैली में एक अनोखा संगम देखने को मिलता है – जहाँ मराठी मिठास, दक्खिनी तहज़ीब और पंजाबी गर्मजोशी मिलती है।
यहाँ की गलियाँ आज भी पुराने ज़माने की सरगोशियाँ करती हैं। कभी किसी कोने से इक उर्दू शायरी की सदा सुनाई देती है, तो कहीं भगत सिंह की वीरगाथा। यहाँ मजहबों की दीवार नहीं, इश्क़ का पुल है।

नांदेड की मिट्टी में मौसिकी घुली है। चाहे वो गोदावरी के किनारे बैठ कर गुनगुनाए गए गीत हों, या नगर कीर्तन में बजे ढोल की थाप – यहाँ हर ध्वनि एक सुर की तरह गूंजती है। यहाँ की लोकसंस्कृति, मराठी-उर्दू कव्वालियाँ, कवि सम्मलेन और संगीत महोत्सव, इस शहर की आत्मा को आवाज़ देते हैं।
यहाँ की “नांदेड महोत्सव”जैसी सांस्कृतिक संध्याएँ न केवल लोककला को मंच देती हैं, बल्कि नए कलाकारों को उड़ान भी देती हैं। बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक, हर कोई अपनी कला में मगन है। यहाँ के कलाकारों की अदाओं में सादगी है, और आवाज़ों में मिट्टी की महक।

आज का नांदेड सिर्फ इतिहास में ही नहीं, बल्कि विकास के पथ पर भी अग्रसर है। यहाँ के एयरपोर्ट, रेलवे नेटवर्क, शैक्षणिक संस्थान, मेडिकल सुविधाएं – सभी इसे आधुनिक शहरों की कतार में खड़ा करते हैं। लेकिन सबसे खास बात ये है कि यह शहर आज भी अपनी रूहानी पहचान, अपनी तहज़ीब और अपने संस्कारों से जुड़ा हुआ है।
यहाँ की युवा पीढ़ी तकनीक में माहिर होते हुए भी अपने गुरुओं, अपने पूर्वजों और अपने संस्कारों को नहीं भूली। यही तो पहचान है इस शहर की – जो जितना आगे बढ़ता है, उतना ही अपनी जड़ों की ओर झुकता है।

मैं जब भी नांदेड का ज़िक्र करता हूं, तो मेरी कलम खुद-ब-खुद चल पड़ती है। यह शहर मेरी रूह में बसा है, मेरी सांसों में घुला है, और मेरी यादों में चिरस्थायी है।
> *”नांदेड वो ज़मीं है जहां खुदा भी सर झुकाता है,
> *जहां गुरुओं की रहमत, हवाओं में मुस्कुराती है।
> *जहां हर गली एक दास्ताँ कहती है,
> *और हर फिज़ा रूह से कुछ कह जाती है।”
नांदेड एक शहर नहीं, एक किताब है – जिसमें हर पन्ना ज्ञान, प्रेम, भक्ति और इतिहास से सराबोर है। यह किताब जब भी पढ़ो, कुछ नया सिखाती है। यही इसकी खासियत है।
ऐ नांदेड, तू सिर्फ मेरा शहर नहीं, तू मेरी पहचान है, मेरी प्रेरणा है और मेरे ख्वाबों की बुनियाद है।”
– लेखक गुरु कालरा