अपनी पहचान खोता हुआ पुरुष..

लेखक की भूमिका

मैं, गुरु कालरा, इस लेख के माध्यम से अपने जीवन के चालीस वर्षों के अनुभवों की आंखों से पुरुष की बदलती भूमिका, उसकी सामाजिक पहचान, मानसिक संघर्ष और बदलते पारिवारिक ढांचे के बीच उसकी स्थिति का एक आत्मविश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह लेख उन सभी पुरुषों को समर्पित है जो अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में कहीं न कहीं स्वयं को खोते जा रहे हैं, और उन परिवारों को भी, जहाँ संबंधों की गरिमा आज की तथाकथित आधुनिकता की दौड़ में मिटती जा रही है।

समय के साथ समाज में अनेक परिवर्तन हुए हैं। जीवनशैली, सोच, संबंध और भूमिकाएं – सबने नए रंग रूप अपनाए हैं। परंतु इस सामाजिक क्रांति के मध्य एक ऐसा वर्ग है जिसकी पहचान धुंधली होती जा रही है – वह है पुरुष। विशेषतः वह पुरुष जो जीवन के चालीस वर्ष पार कर चुका है, जिसने जिम्मेदारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाया और बदले में कहीं अपनी खुद की पहचान ही खो बैठा।

बदलती सामाजिक संरचना और पुरुष की भूमिका

एक समय था जब पुरुष को परिवार का पालनहार माना जाता था। वह बाहर की दुनिया से संघर्ष करता, रोटी कमाता, और घर को संरक्षित रखने का माध्यम बनता। समाज ने उसकी इस भूमिका को सम्मान दिया। लेकिन समय के साथ जब समानता और स्वतंत्रता की लहरें उठीं, और नारी सशक्तिकरण का उदय हुआ, तब परिवार के इस पारंपरिक ढांचे में बदलाव आने लगा।

निस्संदेह, महिलाओं का शिक्षित होना, कार्यक्षेत्र में आना और अपने अधिकारों के प्रति सजग होना एक सकारात्मक क्रांति है। परंतु इसका एक ऐसा पक्ष भी उभर कर आया है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, पुरुष की भूमिका का अस्थिर होना।

 

40 वर्षीय पुरुष की अंतर्दृष्टि

एक ऐसा पुरुष जो अपने जीवन के चालीसवें दशक में है, वह अक्सर परिवार, करियर और सामाजिक जिम्मेदारियों के चौराहे पर खड़ा होता है। उस पर पिता होने का दायित्व है, पति होने की उम्मीदें हैं, पुत्र होने की जिम्मेदारियां हैं, और साथ ही वह स्वयं को भी तलाशता है। लेकिन अब समाज में ऐसे ताने मिलते हैं. “मर्द को तो कुछ कह ही नहीं सकते”, “तुम्हारा समय चला गया”, “अब महिलाएं ही सब कुछ हैं”।यह पुरुष न तो परंपरा के पूरी तरह अनुरूप रह पा रहा है, न ही आधुनिकता के साथ तालमेल बिठा पा रहा है। उसका संघर्ष केवल घर और नौकरी तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी आत्मिक पहचान की लड़ाई है।

 

नारी सशक्तिकरण और उसके अप्रत्यक्ष प्रभाव

नारी सशक्तिकरण एक अनिवार्य सामाजिक प्रक्रिया है, जिससे महिलाएं वर्षों की दमनकारी व्यवस्था से बाहर निकली हैं। वे आज डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, राजनेता, व्यापारी और ‘बॉस’ बन चुकी हैं। यह बदलाव स्तुत्य है। किंतु इस बदलाव ने पारिवारिक ढांचे पर एक चोट भी की है।

जहाँ पहले परिवार एक संयुक्त इकाई हुआ करता था, वहाँ अब ‘मेरा करियर’, ‘मेरी स्वतंत्रता’, ‘मेरे निर्णय’ जैसी धारणाएं आ गई हैं। यह धाराएं व्यक्तिगत उन्नति के लिए अच्छी हो सकती हैं, परंतु सामूहिक पारिवारिक ढांचे के लिए हानिकारक हैं।आज की ‘बॉस लेडी’ जब विवाह, मातृत्व और परिवार को बोझ मानती है, तो वह जाने-अनजाने उस पुरुष के जीवन को भी असंतुलित करती है जो समझौते करता चला आया है। परिणामस्वरूप, न केवल विवाह टूटते हैं, बल्कि बड़ी-बड़ी पारिवारिक व्यवस्थाएं भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। माता-पिता वृद्धाश्रम में और बच्चे डिजिटल यंत्रों की गोद में पलते हैं।

 

पुरुष की चुप्पी और मानसिक स्वास्थ्य

पुरुष को बचपन से सिखाया गया है कि वह रोए नहीं, कमज़ोर न दिखे, हर हाल में मजबूत बना रहे। यही सोच चालीस की उम्र में आकर उसका सबसे बड़ा बोझ बन जाती है। वह न अपने डर जाहिर कर पाता है, न असुरक्षाएं। जब वह देखता है कि उसकी भूमिका को समाज में नाकारा जा रहा है, उसकी जरूरतें अब गौण हो गई हैं, तब वह भीतर ही भीतर टूटने लगता है।

पुरुष आत्महत्या, अवसाद और मानसिक तनाव के शिकार हो रहे हैं, परंतु समाज उनकी पीड़ा को ‘कमज़ोरी’ समझ कर चुप करा देता है। एक औरत की पीड़ा को सहानुभूति मिलती है, पर पुरुष की चुप्पी को उपेक्षा।

 

परिवार का विघटन और सामाजिक परिणाम

जहाँ एक समय संयुक्त परिवारों में चार पीढ़ियां एक साथ रहती थीं, वहीं अब एकल परिवार भी स्थायी नहीं रह गए हैं। आधुनिक महिलाएं यदि विवाह से परे अपनी स्वतंत्रता चाहती हैं, तो पुरुष असमंजस में पड़ जाता है — कि वह किसके लिए लड़े? किसके लिए त्याग करे?बच्चे माता-पिता के अलगाव के बीच टुकड़ों में बंट जाते हैं। बुज़ुर्ग एक कोने में पड़े रहते हैं। ऐसे में समाज की वह इकाई परिवार जो हमारी संस्कृति की आत्मा थी, धीरे-धीरे मिटती जा रही है।

समाधान और संतुलन की आवश्यकता

यह लेख न तो नारी सशक्तिकरण का विरोध करता है, न ही पुरुष प्रधान व्यवस्था की पैरवी। यह केवल संतुलन की मांग करता है। यदि पुरुष को केवल एक ‘कमाने वाला यंत्र’ और महिला को केवल एक ‘स्वतंत्र इकाई’ मान लिया गया, तो समाज टूटेगा।आवश्यक है कि पुरुषों की भूमिका का पुनर्परिभाषित किया जाए। उनके संघर्षों, बलिदानों और मानसिक स्वास्थ्य को भी उतनी ही गम्भीरता से लिया जाए, जितनी महिलाओं की भावनाओं को। महिलाओं को चाहिए कि वे स्वतंत्रता को अपनाते हुए भी परिवार और संबंधों के महत्व को समझें। पुरुषों को चाहिए कि वे अपने मन की बात कहने का साहस रखें और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें।

 

निष्कर्ष

समाज की असली सुंदरता संतुलन में है, न कि प्रतिस्पर्धा में। यदि नारी शक्ति है, तो पुरुष भी आधार स्तंभ है। एक का सम्मान दूसरे की अवमानना से नहीं होता। पुरुष अपनी पहचान तभी पुनः पा सकेगा, जब समाज उसे केवल जिम्मेदारियों के बोझ तले न देखकर, एक भावनात्मक और सामाजिक प्राणी के रूप में स्वीकार करेगा।

आज ज़रूरत है एक ऐसे युग की शुरुआत की, जहाँ पुरुष भी रो सके, थक सके, और समझा जा सके। तभी एक स्वस्थ, संतुलित और सशक्त समाज का निर्माण संभव होगा।

इस लेख को लिखते समय मैने मेरे करीबी कई पुरुषो की मानसिकता ओर उनके परिवारिक तथा सामाजिक संबधों को विश्लेषण किया है आशा करता हु मेरा समाज ओर आज के पुरुष को देखने का नजरिया सही हो.

– गुरू कालरा

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