“पिता का साया बनी माँ: एक अमर समर्पण की गाथा”

हर वर्ष जून के तीसरे रविवार को मनाया जाने वाला पिता दिवस केवल एक दिन नहीं होता, यह जीवन भर के त्याग, संरक्षण और प्रेम का स्मरण है। परंतु कुछ जीवन ऐसे भी होते हैं जहाँ पिता का साया बचपन में ही उठ जाता है, और माँ अकेले ही दोनों भूमिकाओं को निभाने का संकल्प लेती है। ऐसे ही एक जीवन का चित्रण है यह लेख, जिसमें एक माँ ने पिता के स्थान को भी इतनी गरिमा और निष्ठा से भरा कि संतान को कभी उस अभाव का अनुभव ही नहीं हुआ। यह लेख उस माँ को समर्पित है, जिसने पिता बनकर भी संतान का मार्ग प्रशस्त किया।

बचपन की छाया: जब पितृत्व छिन गया

मेरे जीवन की वह घड़ी जब मैं अपने पिता के साये से वंचित हो गया, मेरी स्मृतियों में धुंधली है। उम्र छोटी थी, समझ की सीमाएँ थीं, पर एक रिक्तता थी जो समय के साथ स्पष्ट होती गई। उस रिक्तता को भरने के लिए कोई और नहीं, मेरी माँ ही थीं। उन्होंने अपने आँसू छुपाकर मेरे लिए मुस्कुराना सीखा, अपने सपनों को त्यागकर मेरे भविष्य को सँवारने का संकल्प लिया। वह सिर्फ माँ नहीं रहीं, वह पिता भी बन गईं।

माँ का संघर्ष: एक नारी, दो उत्तरदायित्व

जब समाज ने कहा कि एक स्त्री अकेले संतान को पाल नहीं सकती, माँ ने वही समाज से लड़कर दिखाया कि दृढ़ संकल्प और ममता के सम्मिलन में क्या सामर्थ्य छिपा होता है। उन्होंने दिन को तपस्या और रात को जागरण बनाया। काम किया, घर चलाया, मुझे शिक्षित किया, संस्कार दिए। एक हाथ से रोटियाँ बेलतीं, तो दूसरे हाथ से गणित समझातीं। उनका जीवन किसी तपस्वी की तरह अनुशासित था – जहाँ कोई शिकायत नहीं, केवल समर्पण था।

पिता की कमी कभी खलने नहीं दी

माँ ने मेरे जीवन में पिता की उस भूमिका को इतने सलीके से निभाया कि मैं कभी महसूस ही न कर सका कि वह स्थान रिक्त है। जब पहली बार साइकिल चलाना सीखा, माँ ने खुद पीछे दौड़कर मेरा संतुलन साधा। जब स्कूल में कोई कार्यक्रम होता, माँ पिता की भूमिका में आगे बढ़कर खड़ी हो जातीं। अभिभावक बैठक से लेकर परीक्षा के तनाव तक, हर मोड़ पर माँ ने मेरा मार्गदर्शन किया।

उन्होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वे अकेली हैं, या थकी हुई हैं। उनका हौसला, उनका प्रेम, उनकी दृष्टि – सबमें पिता का सामर्थ्य था।

संस्कार और आत्मबल का निर्माण

माँ ने मुझे केवल जीवित रहने की शिक्षा नहीं दी, बल्कि जीवंत रहने की प्रेरणा दी। उन्होंने यह सिखाया कि विपत्तियों से घबराया नहीं जाता, उनका सामना किया जाता है। जब जीवन में चुनौतियाँ आईं, माँ की कही बातें और उनके आचरण मेरे संबल बने।

माँ ने यह भी सिखाया कि पुरुषार्थ का अर्थ केवल भौतिक सफलता नहीं, बल्कि आत्मिक विकास है। वे हर बार कहतीं – “तू अकेला नहीं है, तेरे साथ तेरा विश्वास है, तेरा पुरुषार्थ है, और मैं हूँ।”

एक माँ, जो मेरी ताक़त बनी

आज जब मैं जीवन के जिस भी मुकाम पर खड़ा हूँ, उसका श्रेय किसी एक व्यक्ति को देना हो, तो वह माँ हैं। उनके बलिदान, उनकी ममता, और उनका साहस ही मेरी ताक़त है, मेरी जीत है, मेरा अस्तित्व है। वे ही मेरी “तख़्त” हैं, क्योंकि उन्होंने मुझे आत्मविश्वास का सिंहासन सौंपा।

मैंने पिता का स्थान कभी रिक्त नहीं पाया, क्योंकि माँ ने अपने आँचल से उस स्थान को भरा – वात्सल्य से नहीं, अपितु धैर्य, अनुशासन और संबल से।

पिता दिवस पर माँ को नमन

इस पिता दिवस पर मैं उन सभी माँओं को प्रणाम करता हूँ जो जीवन के संघर्ष में अकेली रह जाती हैं, पर हार नहीं मानतीं। जो न केवल जननी बनती हैं, बल्कि पालनकर्ता, मार्गदर्शक और संरक्षक भी बन जाती हैं।

मेरी माँ केवल मेरी जननी नहीं हैं, वे मेरे जीवन की प्रेरणा हैं। उन्होंने पिता की अनुपस्थिति को कभी मेरी दुर्बलता नहीं बनने दिया, बल्कि उसे मेरी सबसे बड़ी शक्ति में परिवर्तित कर दिया।

उपसंहार

समाज में अक्सर पिता को शक्ति और माँ को ममता का प्रतीक माना जाता है, परंतु मेरे जीवन में माँ ही मेरी शक्ति बनीं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि एक स्त्री में सम्पूर्ण सृष्टि की क्षमता समाहित होती है। माँ ने जो भूमिका निभाई, वह किसी देवत्व से कम नहीं थी।

आज यदि मैं पिता दिवस पर किसी को धन्यवाद देना चाहूँ, तो वह माँ होंगी  क्योंकि उनके कारण ही मैंने पिता का साया पाया, भले ही पिता इस संसार में न रहे।

“माँ तुमने मुझे जन्म नहीं, जीवन दिया है  एक पूर्ण जीवन, जिसमें पिता का साया भी तुम्हारी छाया में समाया हुआ है।”

लेखक: गुरु कालरा

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