कभी-कभी ज़िंदगी में कुछ रिश्ते ऐसे आते हैं, जो दिखने में तो ‘अपने’ जैसे लगते हैं, लेकिन असल में वो बस चेहरे बदलकर आई भीड़ का हिस्सा होते हैं। पहले जो सुकून तन्हाई में मिला करता था, अब वो भी किसी कोने में छिप गया है। पहले मैं जब अकेला था, तब अमीर था — जज़्बातों से, ख्यालों से, अपने ही ख्वाबों की दुनिया से। मगर अब जब कुछ जान-पहचान वाले बढ़ गए, तो जैसे भीतर से खुद को खो बैठा हूँ। आजकल तन्हाई नहीं मिलती… और न ही वो अमीरी।
माना कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसे साथ चाहिए, रिश्ते चाहिए, बोलचाल चाहिए। लेकिन कभी-कभी यही भीड़ सबसे बड़ा अकेलापन दे जाती है। जब चंद लोगों का साथ सिर्फ औपचारिकता बन जाए, जब मुस्कानें सिर्फ ज़रूरत के वक्त दिखाई दें, जब हालचाल भी किसी मतलब की पोटली में लिपटे हों — तब दिल करता है कि फिर से वही तन्हाई की अमीरी लौट आए।
कभी मेरी तन्हाई में मैं खुद से मिला करता था। घंटों बैठा रहता था खामोशी में, लेकिन भीतर कितना कुछ चलता था! हर एक सोच का, हर एक ख्याल का अपना वजूद था। मेरी तन्हाई मेरी दुनिया थी, जहां झूठ नहीं था, मुखौटे नहीं थे, मतलब नहीं था। वहाँ मैं गरीब नहीं था — वहाँ मैं खुद का राजा था।
अब देखो तो चारों ओर रिश्ते हैं, बातें हैं, कॉल्स हैं, व्हाट्सएप के मैसेज हैं, मीटिंग्स हैं, गेट-टुगेदर हैं। पर इन सबके बीच जो खो गया है, वो मैं हूँ। कभी-कभी किसी महफिल में भी अजीब सा सन्नाटा महसूस होता है। लोग साथ होते हुए भी साथ नहीं होते। और मैं, सबके बीच होते हुए भी अकेला महसूस करता हूँ।
यही भीड़ कभी-कभी इंसान को उसके असली ‘मैं’ से दूर ले जाती है। जब किसी का ‘कैसा है?’ सिर्फ एक फॉर्मेलिटी हो, जब आपकी ‘खुशियां’ सिर्फ सोशल मीडिया की पोस्ट तक सीमित हों, और जब दुख किसी को कहने का मन न करे — तो समझ लो, रिश्तों की गिनती बढ़ी है, पर एहसास की गहराई खो गई है।
मैं ये नहीं कहता कि हर नया रिश्ता बोझ होता है। लेकिन जब रिश्ता सिर्फ जान-पहचान बनकर रह जाए, और उसमें आत्मा न हो, तो वह धीरे-धीरे अंदर ही अंदर हमें खोखला कर देता है। अब वो सुकून नहीं रहा, जो पहले एक कप चाय के साथ खुद से बातें करते हुए मिलता था। अब तो चाय के भी कई साथी हैं, पर उस स्वाद में अब वो ताजगी नहीं।
कभी लोग कहते थे — “तू अकेला रहता है, तुझे कोई चाहिए बात करने को।” और आज जब लोग हैं, तो लगता है कि फिर से वही तन्हाई लौट आए। क्योंकि उस अकेलेपन में मैं खुद को जानता था, समझता था, महसूस करता था। अब तो लोग इतना बोलते हैं कि मेरी आवाज़ कहीं दब सी गई है।
अब समझ में आता है कि असली अमीरी क्या होती है — अपनी मर्जी से जीना, अपने ख्यालों में खो जाना, बिना मतलब के हँसना और बिना फिक्र के रो लेना। अब ये सब बहुत महँगा हो गया है। अब हर भावना की कीमत है, हर लम्हे का हिसाब है।
अगर कोई मुझसे पूछे कि सबसे कीमती क्या खोया ज़िंदगी में — तो मैं कहूँगा, “मेरी तन्हाई।” क्योंकि वहीं मेरी दुनिया थी, मेरा सुकून था, मेरी अमीरी थी।
अब भी उम्मीद करता हूँ कि कभी वो पल लौटें। जब रिश्ते हों, तो सच्चे हों। जब बात हो, तो दिल से हो। जब अकेला बैठूं, तो फिर से अमीर महसूस कर सकूं। तब शायद फिर से कह सकूँ — “हां, मैं तन्हा हूँ… लेकिन खुश हूँ। मैं गरीब नहीं हूँ… मैं सबसे अमीर हूँ।”
लेखक:– गुरु कालरा
(एक तन्हा, मगर सच्चा अनुभव)
