जिंदगी एक प्रयोगशाला ही तो है

काग़ज़ पर क़लम रखूँ तो सबसे पहले मन में यही सवाल गूँजता है — मैं कौन? कोई नामचीन लेखक, पुरस्कार‑विजेता कवि या मंच लूट लेने वाला शायर तो नहीं। मैं तो वही साधारण‑सा मुसाफ़िर हूँ जिसकी जेब में यादों की गठरी है और दिल में कुछ सच्चे किस्से। जीवन की लम्बी सड़कों पर धूप‑छाँव के साथ‑साथ चलते‑चलते जो महसूस किया, वही स्याही बनकर उँगलियों के सिरे तक सरक आया है। लिखने का पेशा मैंने कभी चुना नहीं, लिखना तो जैसे मुझे चुनकर ही आ बैठा — और अब यह प्रस्तावना आपके हाथों तक पहुँची है।

बचपन के दिन थे, जब नीला आसमान मेरी छत हुआ करता था। घर के आँगन में पड़े खटिये पर लेटे‑लेटे बादलों को भेड़‑बकरियों का झुंड समझकर कहानियाँ गढ़ता था। तब समझ कहाँ थी कि कल्पना असल में एक अकेली मशाल है, जो अँधेरे समय में रास्ता भी दिखाती है और दिल को गर्मी भी देती है। उन नादान दिनों में बोए गए शब्दों के छोटे‑छोटे बीज धीरे‑धीरे भीतर अंकुराने लगे। किसी ने पंखों वाले सपने दिखाए, तो किसी ने धूल भरे थपेड़ों से लड़ना सिखाया। मगर काग़ज़ पर उतरने का साहस तब नहीं था; बस, मन की डायरी में सब जमा होता रहा।

 

युवा हुआ तो शहरों की भीड़ ने अपनी रफ़्तार से गले लगा लिया। कॉलेज की फ़ीकी दीवारों पर राजनीतिक नारों से सब कुछ कोरी किताब की तरह पढ़ता चला गया। वहाँ पाया कि ज़िंदगी केवल हँसने‑रोने का नाम नहीं है; यह एक सतत ‟प्रयोगशाला” है जहाँ हर मोड़ पर नया रसायन, नई प्रतिक्रिया तैयार है। इन प्रतिक्रियाओं में कभी प्रेम का गुलाल घुला, कभी असफलता का गाढ़ा अँधेरा। और फिर जब शब्दों ने सीना फुला‑फुला कर दस्तक दी, तो मैंने उनकी आहट सुनी, उन्हें रोका, निचोड़ा, और सफ़ेद पन्नों पर उड़ेल दिया। उन छींटों के रंग एक दिन आपके सामने भी बिखरने थे—शायद आज ही का दिन था।

 

मेरी लेखनी को ठोस आकार देने का श्रेय उन असंख्य चेहरों को जाता है जो राह में मिलते गए। किसी ने पीड़ा बाँटी तो किसी ने हौसला बख़्शा; किसी ने भ्रम की पतंग उड़ाई तो किसी ने प्रश्नों की कैची थमा दी। इन सबके बीच मैंने जाना कि शब्द कभी तटस्थ नहीं होते: वे या तो इंसाफ़ करते हैं या फिर बदला लेते हैं। आप उन्हें जैसे बरतेंगे, वे ठीक वैसा ही रूप धरेंगे। जब मैंने डरकर काट‑छाँट की, वे लहूलुहान हो गए; जब खुलकर जीने दिया, तो एक लम्बी साँस की तरह प्रशान्ति भर दी। इस द्वंद्व ने समझाया कि लिखना अपने‑आप में एक तप है—अनवरत, अनिवार्य और अन्ततः उदार।

 

अब जब जीवन की आधी चढ़ाई पार कर चुका हूँ, तो लगता है कि क़लम कच्ची नहीं, बस झिझकी हुई थी। हमेशा डर लगा कि कहीं लोग दो टूक आलोचना न कर बैठें—मगर जितना‑जितना सफ़र आगे बढ़ा, उतना‑उतना यह डर परत‑दर‑परत उतरता गया। आज मैं यह प्रस्तावना लिखते हुए जानता हूँ कि प्रशंसा‑निन्दा से परे भी एक ज़मीन है जहाँ सिर्फ़ सच्चे तजुर्बे खड़े होते हैं। यदि आप वहाँ तक पहुँच गए, तो शब्द अपने‑आप ग्रहण लगाना छोड़ देते हैं और चाँद‑सा उजला पड़ाव बन जाते हैं।

 

लेखन मेरे लिए केवल कला नहीं, कुछ हद तक इबादत है। जब मैं काग़ज़ पर सिर झुकाता हूँ, तो साँसें नमाज़ की तरह व्यवहार करती हैं — हर पंक्ति एक सज्दा, हर विराम एक दुआ। मैं पाठकों को साक्षी बनाकर यह दुआ माँगता हूँ कि मेरे शब्द किसी के जीवन में रोशनी की तरह ठहरें। शायद यह बहुत बड़ा दावा है; पर अगर एक अकेला वाक्य भी किसी के भीतर उमड़ते सन्नाटे को संवाद दे दे, तो मेरे इस सफ़र के मोल की भरपाई हो जाएगी।

 

इस प्रस्तावना के बहाने मैं आपसे एक वचन भी माँगना चाहता हूँ: मेरी रचनाओं को पढ़ते समय कृपया सन्‍दर्भों की दीवार हटाकर भीतर उतरें। कई बार एक पंक्ति अतिशयोक्ति लगेगी, पर यक़ीन मानिए उसकी जड़ वास्तविक पीड़ा या उल्लास में धँसी मिलेगी। अगर कहीं भाषा असहज लगे, तो समझ लीजिए वह मेरी निजी लड़ाई का दाग़ है—उसे मिटाना आसान नहीं था, इसलिए उसे चमकाने की फ़िक्र भी नहीं की। लेकिन अगर दिल के किसी कोने में उन दाग़ों से आपके अपने ज़ख़्मों की होती हुई कोई कड़ी जुड़ जाए, तो उस पल मैं स्वयं को भाग्यशाली समझूँगा।

 

जीवन ने मुझे सिखाया कि शब्द पत्थर भी हो सकते हैं और पुल भी। पत्थर तब, जब हम ग़ुस्से में फेंक दें; पुल तब, जब हम उन्हें मजबूती से जोड़कर घाट‑से‑घाट मिलाने लगें। मैं चाहूँगा कि मेरी कहानियाँ दूसरा रास्ता चुने, पर फिर भी जहाँ‑जहाँ उखड़े किनारे नज़र आएँ, वहाँ अपनी राय, अपने सुझाव अवश्य लिख भेजें। मैं उन टिप्पणियों को ईंट की तरह इकट्ठा करूँगा ताकि अगली बार पुल और चौड़ा, और मज़बूत बन सके।

 

अगर यह प्रस्तावना आपको कभी अतिशय विनम्र लगी हो, तो यकीन जानिए यह नम्रता कमज़ोरी नहीं; यह उस इंसान का आत्मबोध है जिसने शब्दों की शक्ति को भी देखा और उनकी सीमाएँ भी। शब्द संसार बदल सकते हैं, पर लिखने वाले को सबसे पहले स्वयं अपने भीतर बदलाव लाना पड़ता है। इस परिवर्तन की यात्रा अनवरत है—मैं आज जहाँ हूँ, कल वहाँ नहीं रहूँगा; कल जो लिखूँगा, वह आज से अलग होगा। इस निरन्तरता में मेरा सबसे बड़ा सहचर सिर्फ़ एक है—सच। वह सच जो कभी तसल्ली देता है, कभी बेचैन करता, पर हमेशा आगे बढ़ाता है।

 

अन्त में, मैं अपने पाठक‑मित्रों से यही कहूँगा: अगर आपको मेरी रचनाएँ अच्छी लगें तो ताली बजाइए, और अगर कमज़ोर लगें तो उन पर रौशनी डालिए। तारीफ़ एक फूल की तरह है—ख़ुशबू देती है पर जल्दी मुरझा भी जाती है; आलोचना खाद की तरह है—कदाचित दुर्गन्ध भरी, पर मिट्टी को उर्वर और रचना को पुष्पित कर देती है। मुझे दोनों की समान ज़रूरत है, ताकि मेरी कलम गहराई पा सके, रंग घनीभूत हों, और जिन्दगी की स्याही कहीं फीकी न पड़े।

 

यह प्रस्तावना मैं इस विश्वास के साथ समाप्त करता हूँ कि अब शब्दों की यात्रा अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ेगी—आपके हृदय की ओर। अगर वहाँ जगह मिल गई, तो मेरी साधारण‑सी क़लम भी इतिहास की महीन रेखाओं पर अपनी नन्ही छाप छोड़ देगी। और अगर नहीं भी मिली, तो कोई बात नहीं; अनुभवों की गागर भरी है, अगली बार फिर आएगी, नया कुछ लेकर। तब तक, आप सब मेरे सहयात्री बने रहें—सुझावों की बैसाखी थामे, प्रशंसा की पगडंडी पर, या फिर प्रश्नों की घुमावदार राहों से ही सही।

शब्दों को समेटते‑समेटते मन में फिर वही बालपन की मृदुल उत्सुकता हिलोरें लेती है—क्या इस बार मेरी जलेबी‑सी मुड़ी लिखावट के बीच आपको कहीं अपनी चीनी की मिठास मिल पाएगी? उत्तर आप ही लिखेंगे। मैं तो बस इतना कहूँगा:

“क़लम अभी कच्ची है, स्याही को गाढ़ा होने दो;

रंग जब पूरा पक जाएगा, कहानी अपना घर ढूँढ लेगी।”

लेखक :गुरु कालरा

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