सड़क से सदरक्षणाय खलनिघ्रणाय तक – एक आम लड़के की असाधारण यात्रा

भाग–1

मैं एक आम लड़का था, जिसके सिर पर बस एक खुला आसमान था — न कोई महल, न कोई दौलत, न कोई रुतबा। लेकिन वो आसमान मेरा था, मेरा अपना, जिसे मुझसे कोई छीन नहीं सकता था। वो मेरा पहला और आखिरी अधिकार था — आज़ादी का, सोच का, और सपनों का।

जीवन की शुरुआत एक गहरे शून्य से हुई। जब मैं महज़ एक वर्ष का था, तभी पिताजी का स्वर्गवास हो गया। एक बच्चा जिसे चलना भी नहीं आता था, उसकी दुनिया से उसका सबसे बड़ा सहारा छिन गया। तभी दुखों ने हमारे जीवन में दस्तक दी। माँ पर सब कुछ आ गया — घर, ज़िम्मेदारियाँ और मेरा पालन-पोषण। उन्होंने हार नहीं मानी। वो गुरुद्वारे के पास के एक छोटे से स्कूल में शिक्षिका थीं, और वही बन गईं मेरी पहली गुरु, मेरी पहली योद्धा।

 

हमारे आसपास का माहौल बिल्कुल अलग था — एक ओर गुरुद्वारा था, शांति का प्रतीक, सिख परंपराओं से जुड़ा हुआ। मेरी रगों में वही संस्कार बहते थे। लेकिन दूसरी ओर, मोहल्ले में ग़लत प्रवृत्ति के लोग, झगड़े, तनाव और ग़लत संगतें भी मौजूद थीं। उस माहौल में सही और ग़लत का संतुलन बनाकर चलना एक चुनौती थी, लेकिन वहीं से मैंने लोगों को परखना, बोलने से ज़्यादा सुनना और ज़िंदगी को समझना शुरू किया।

 

हमारे घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी। माँ की मामूली तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल था। मैं ज़्यादातर अपने नाना-नानी और मामा के पास रहता, क्योंकि माँ को काम पर जाना होता था। मेरा बचपन टुकड़ों में बंटा हुआ था — जैसे एक टूटी हुई पतंग जो कभी इस छत पर तो कभी उस छत पर लहराती थी।

 

गुजराती हाई स्कूल से किसी तरह एसएससी तक पढ़ाई पूरी की। पढ़ने में अच्छा था, लेकिन आत्मविश्वास की कमी हमेशा सताती रही। जैसे कोई अदृश्य दीवार हो जो कहती हो — “तू कुछ नहीं कर सकता, तू गरीब है, तेरी कोई औकात नहीं।” वही डर, वही संकोच मेरी प्रतिभा को कुचलने की कोशिश करता रहा।

कॉलेज में दाखिला लेना आसान नहीं था। पैसे नहीं थे, रिश्तेदार ताने मारते — “अब तो कुछ कर ले”, “किसी दुकान पर लग जा”, “चाय-पानी का काम सीख ले”, “पठानी सिंह बन जा”, वगैरह-वगैरह। लेकिन मेरी सोच अलग थी। जैसे माँ मुझे तीन साल बड़े कपड़े लाकर देती थीं ताकि मैं पाँच साल तक पहन सकूँ, वैसे ही मैं पाँच साल आगे की सोच रखता था।

उसी समय एक फरिश्ता मेरी जिंदगी में आया — एक ऐसा शख्स जिसने बिना कोई स्वार्थ के मेरा यशवंत कॉलेज में साइंस स्ट्रीम में दाखिला करवाया। न कोई डोनेशन, न कोई फीस — सिर्फ़ इंसानियत और विश्वास। उसी ने मुझे एक टेम्पररी कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी दिलवाई।

अब जिंदगी की राह थोड़ी आसान लगने लगी। अब दिन और रात का मतलब समझ आने लगा था — जब पहली बार घर में कलर टीवी आया, फ्रिज आया और लकड़ी का एक छोटा-सा पार्टिशन जो हमारे ‘घर’ को एक शक्ल देता था। पहली बार ऐसा लगा कि इस दुनिया में मेरा भी एक कोना है, मेरा भी एक ठिकाना है।

अब मैं दिन में कॉलेज और रात में काम करता था। थकान होती थी, लेकिन दिल में उम्मीद थी। मैं जान गया था कि हालात चाहे जैसे भी हों, अगर नियत साफ़ हो और इरादे मजबूत, तो किस्मत भी झुकती है।

लेखक:–  गुरु कालरा 

भाग 01 समाप्त

(भाग 02 जल्द ही प्रस्तुत होगा – जिसमें सफर और ऊँचाइयों तक ले जाएगा)

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