जब वाहेगुरु मौन थे और मैं रो रहा था

ज़िन्दगी में कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो सिर्फ बीते हुए समय की तरह नहीं जाते, बल्कि हमारी आत्मा में स्थायी रूप से दर्ज हो जाते हैं। कल का दिन ऐसा ही एक लम्हा था।

माँ को अचानक सीने में तेज़ दर्द उठा। वो दर्द ऐसा था जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। शुक्र है, मैं वहीं था। उनकी आँखों में जो पीड़ा थी, वो मेरी आत्मा को चीरती जा रही थी। उनका काँपता हुआ हाथ, उनका कुछ न कह पाना – जैसे समय रुक गया हो।

जैसे ही मैं उन्हें अस्पताल लेकर भागा, मन में एक ही आवाज़ थी – “हे वाहेगुरु, मेरी माँ को बचा लेना।” वही वाहेगुरु, जिनका नाम मैंने संकट के समय लिया, जिनके सामने मन में बार-बार प्रार्थना उठी। गुरुद्वारे में सिर झुकाया है, सेवा भी की है, लेकिन उस दिन सिर्फ एक भावना थी – दया, कृपा और माँ के लिए अरदास।

जब अस्पताल की बेंच पर बैठा माँ के इलाज की खबर का इंतज़ार कर रहा था, तब आँखों के सामने एक के बाद एक सारी पुरानी तस्वीरें घूम गईं – माँ की ममता, उनकी डांट, उनकी चिंता, उनके स्नेह से भरे हाथ। मैं रो नहीं रहा था, लेकिन अंदर कुछ टूट रहा था। और उस टूटन के बीच, मन में एक सवाल उठा – क्या वाकई कोई सुन रहा है?

मैंने देखा, अस्पताल के गलियारे में कुछ लोग चुपचाप दुआ माँग रहे थे। किसी ने गुरुद्वारे में सेवा की होगी, किसी ने अरदास की होगी। और फिर भी, दर्द वहीं था। आँसू वहीं थे। माँ का चेहरा अब भी ऑपरेशन थिएटर के अंदर था।

उस पल, लगा जैसे सब शांत हो गया है – चारों ओर भी, और मेरे भीतर भी। उस ख़ामोशी में मैंने महसूस किया कि वाहेगुरु कोई दूर बैठा शक्ति नहीं, बल्कि हमारे बीच है – हर उस इंसान में जो सेवा कर रहा है, हर उस आत्मा में जो सच्ची भावना से किसी के लिए दुआ माँग रहा है।

अगर माँ के ना होने का एहसास इतना तीव्र है, तो माँ के होने का एहसास उससे कहीं ज़्यादा गहरा था। और अगर वाहेगुरु वाकई मौन थे, तो माँ की ममता क्या उसी वाहेगुरु की जीवित अभिव्यक्ति नहीं थी?

शायद वाहेगुरु को समझने के लिए शब्द, किताबें या विशेष विधियाँ ज़रूरी नहीं हैं। वो तो बस एक भावना है – प्रेम की, सेवा की, बलिदान की। माँ की थकी आँखों में, डॉक्टर की कोशिशों में, नर्स की देखभाल में, और उन तमाम लोगों की चिंता में जो उस घड़ी मेरा सहारा बने – सब में वाहेगुरु ही थे।

माँ की धड़कनें फिर से सामान्य हुईं। डॉक्टर ने कहा – “वो अब खतरे से बाहर हैं।” उस पल, मेरी आँखों से आंसू बह निकले। राहत के थे, शुक्र के थे। और उन सबके लिए थे, जिन्होंने मेरा साथ दिया।

अब जब भी गुरुद्वारा जाता हूँ, तो मन वाहेगुरु से कुछ माँगता नहीं – सिर्फ धन्यवाद करता है। उस अपार शक्ति को नहीं, जो कहीं ऊपर है, बल्कि उन सबको जो मेरे पास हैं – माँ, डॉक्टर, दोस्त, रिश्तेदार, और वे अनजाने लोग भी जिन्होंने उस घड़ी इंसानियत निभाई।

-जी.एस. कालरा

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