“मेरा कमरा” 

 

बचपन की वो धरोहर, मेरी आत्मा का हिस्सा, मेरी सबसे गहरी यादों का खज़ाना है। मैं जब भी अपने अतीत में झांकता हूँ तो सबसे पहले जो तस्वीर आँखों के सामने उभरती है, वह है वही छोटा-सा कमरा। वह न तो ईंटों और सीमेंट से बना कोई मजबूत मकान था और न ही उसमें आधुनिकता का कोई दिखावा था। वह मिट्टी, लकड़ियों और पेड़ों की शाखाओं से बनी एक झोपड़ी थी, मगर उसके भीतर इतनी आत्मा, इतना अपनापन और इतनी गर्माहट थी कि बड़े से बड़े महल में भी वैसा सुख और सुरक्षा का अहसास मुझे कभी नहीं हुआ। वह कमरा मेरे लिए सिर्फ दीवारों और छत का नाम नहीं था, बल्कि पिता के मजबूत हाथ जैसा सहारा, माँ के आँचल जैसा स्नेह और जीवन का सबसे सच्चा साथी था।

 

वह कमरा हर हाल में मेरा साथ देता। धूप की तपन हो, सर्दियों की सिहरन हो, बरसात की बूंदें हों या तूफानी हवाओं का प्रहार, हर वक्त उसने मुझे अपने आंचल में छिपाकर रखा। भूख लगी हो या प्यास, रोना हो या हँसना, खेलना हो या सपने देखना, हर लम्हा उसने मेरे साथ बाँटा। वह सचमुच एक जिंदा साथी था। उसकी दीवारें साधारण नहीं थीं, वे लकड़ियों और मिट्टी से बनी थीं और उनमें जीवन की साँसें थीं। हर लकड़ी की दरार में जैसे आँखें थीं जो मुझे देखतीं, समझतीं और सुनतीं। धूप की किरणें हों या बरसात की बूँदें, सर्दी की ठंडी हवा हो या गर्मियों की लू, सब कुछ उन दरारों से छनकर आता और मुझे एहसास कराता कि यह कमरा सिर्फ जगह नहीं है, बल्कि एक जीता-जागता दोस्त है जो मेरे साथ साँस ले रहा है।

 

फर्श पर गोबर का लेप होता था। लोग शायद उसे मामूली समझते होंगे, मगर मेरे लिए वह घाव पर लगी हल्दी जैसा था। वह कमरे को ठंडा भी रखता और एक अलग-सी मिट्टी की महक भी देता। कमरे के बीचों-बीच मेरा जामुन का पेड़ था। उसी पेड़ से सटा हुआ मेरा छोटा-सा बिस्तर रखा रहता। रात को जब हवाएँ चलतीं और पत्तियाँ सरसरातीं, तो उनकी आवाज़ मुझे माँ की लोरी की तरह सुनाई देती। वह पेड़ मेरी छतरी भी था और मेरा हमराज़ भी। उसकी शाखाओं से लटकते जामुन मेरे बचपन की सबसे बड़ी दौलत थे। बरसात की रातों में जब बादल गरजते और बिजली चमकती, तो मैं अपने बिस्तर में सिकुड़कर बैठ जाता, मगर तभी उस पेड़ की सरसराहट मुझे दिलासा देती—”डरो मत, मैं हूँ तुम्हारे साथ।”

 

उस कमरे की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वह मुझसे बातें करता था। हाँ, यह सुनने में अजीब लगता है, मगर यह बिल्कुल सच था। जब मैं उदास होता, तो दीवारें जैसे मुझे पुकारतीं, जब मैं खुश होता, तो छत जैसे झूम उठती। उस कमरे ने मेरे सारे राज़ सुने, मेरे सपनों को सँभाला और मेरे आँसुओं को पिया। कभी-कभी वह खुद भी मुझसे कहता—”मैं ज़्यादा दिन नहीं रहूँगा, मैं छोटा हूँ पर तेरी ख्वाहिशें बड़ी हैं।” उसकी आवाज़ में एक थकान होती, मगर साथ ही एक अपनापन भी। शायद उसने पहले ही जान लिया था कि समय के साथ वह बूढ़ा हो जाएगा और मुझे नया आशियाना चाहिए होगा।

 

समय का पहिया घूमता गया। मैं बड़ा होता गया और मेरा कमरा बूढ़ा। उसकी लकड़ियाँ सूखने लगीं, मिट्टी झरने लगी और दरारें चौड़ी होने लगीं। आखिरकार एक दिन ऐसा भी आया जब उस जीवित कमरे की जगह ईंटों और सीमेंट से बना नया पक्का मकान खड़ा हो गया। लोग कहते थे—”देखो, अब तुम्हारा घर कितना अच्छा है, कितना मजबूत है और कितना सुंदर है।” मगर मेरे दिल को उस मकान में कोई अपनापन नहीं दिखा। हाँ, वह मकान दिखने में अच्छा था, उसमें चमक थी, मजबूती थी, पर उसमें वो आत्मा कहाँ थी? वो धड़कन कहाँ थी? वो गर्माहट कहाँ थी जो मेरे पुराने कमरे में थी?

 

आज मैं उस पक्के मकान में रहता हूँ, मगर आँखें बंद करते ही अपने पुराने कमरे की महक महसूस करता हूँ। मिट्टी की सोंधी खुशबू, जामुन के पेड़ की सरसराहट, गोबर के फर्श की ठंडक और दीवारों की फुसफुसाहट आज भी मेरी रगों में दौड़ती है। लोग कहते हैं समय के साथ सब भुला दिया जाता है, मगर सच तो यह है कि कुछ चीजें कभी नहीं भुलाई जा सकतीं। मेरा वो कमरा भले ही अब ज़मीन से मिट गया हो, मगर मेरे दिल से कभी नहीं मिट सकता।

 

आज भी जब मैं अकेला बैठता हूँ तो मुझे लगता है कि वो छोटा-सा कमरा अब भी मेरी आँखों में, मेरी साँसों में, मेरे सपनों में ज़िंदा है। वह कमरा जिसने मेरे बचपन को सँभाला, मेरी मासूमियत को पनाह दी, मेरे डर को चुप कराया और मेरे सपनों को पंख दिए। वह छोटा था, कमजोर था, मगर उसमें आत्मा थी, अपनापन था, जीवन था। आज का यह पक्का मकान भले ही सबको अच्छा लगता हो, मगर मेरे लिए तो दिल में हमेशा वही कच्चा कमरा सबसे सुंदर, सबसे मजबूत और सबसे सच्चा रहेगा.

लेखक: गुरु कालरा

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