ठग राजा और चाटुकारों का साम्राज्य

नांदेड,(रामप्रसाद खंडेलवाल)-जब किसी राज्य का राजा ठग हो, और उसकी दृष्टि में केवल चाटुकार ही योग्य सैनिक समझे जाएं, तब उस साम्राज्य का पतन निश्चित हो जाता है। ऐसा राज्य उस वृक्ष के समान होता है जिसकी जड़ें विद्वता और नीति से काट दी गई हों और तना केवल झूठे प्रशंसकों के जल से सींचा गया हो। इतिहास और साहित्य ऐसे अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं जहाँ राजा की मूर्खता और चाटुकारों की भक्ति ने समस्त राष्ट्र को विनाश की ओर धकेल दिया। यह लेख उसी प्रवृत्ति की आलोचना करता है जहाँ विद्वानों का अपमान होता है और चाटुकारों को सिंहासन के समीप स्थान मिलता है।

एक ठग राजा की परिभाषा:

‘ठग राजा’ वह है जो स्वयं भी छल और प्रपंच से सत्ता में आया हो और सत्ता बनाए रखने के लिए सत्य, न्याय और विद्वता को दरकिनार कर देता है। ऐसे राजा को सच्चा परामर्शक नहीं चाहिए होता, उसे चाहिए होते हैं ऐसे लोग जो उसकी हर बात पर ताली बजाएँ, भले ही वह आग में कूदने की बात कहे। वह सेना में योग्य योद्धा नहीं चाहता, बल्कि ऐसे चाटुकार सैनिक चाहता है जो युद्ध में हार जाएँ पर युद्ध से पहले राजा की प्रशंसा में सौ पद्य लिख दें।

चाटुकारों की सेना: एक खोखली दीवार

जिस प्रकार एक कच्ची दीवार बारिष की पहली ही बूंदों में ढह जाती है, वैसे ही चाटुकारों की सेना युद्ध के पहले ही आक्रमण में नष्ट हो जाती है। ऐसे सैनिकों में न तो स्वाभिमान होता है, न समर्पण। वे केवल राजा के झूठे गुणगान में माहिर होते हैं। नीतिकार चाणक्य ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा था:

“न चाटुकारी नृपसमीपवासी, नाप्रगल्भः स्यात् सुजनो विना व्यथा”

(अर्थात, राजा के निकट वही आता है जो चाटुकार हो या निर्लज्ज हो, सज्जनों को वहाँ पीड़ा ही मिलती है।)

विद्वानों का मूल्य ‘दण्ड’ क्यों?

एक समाज की रीढ़ उसकी विद्वत्ता होती है। विद्वान न केवल ज्ञान का दीप जलाते हैं, बल्कि राजा को भी सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। लेकिन जब किसी राज्य में विद्वान होना ही अपराध मान लिया जाए, तो वहाँ नैतिकता का ह्रास और अंधकार का विस्तार होता है।

ऐसा ही हुआ था राजा अम्बष्ठ के काल में। उसकी सभा में जो भी सत्य बोलता, उसे दंडित किया जाता। अंततः वह अपने ही चाटुकारों द्वारा पराजित किया गया।

कवियों की दृष्टि से ऐसे राजा की स्थिति

कवि तुलसीदास ने “रामचरितमानस” में कहा है:

“सठ सुधरहिं सजन सुनि सुधरहिं, धूत काहु को उपदेसु”

(अर्थात, सज्जन तो एक बार समझाने से सुधर जाते हैं, पर मूर्ख पर उपदेश का कोई असर नहीं होता।)

ठग राजा भी वही धूत होता है जिसे न नीति समझ आती है, न धर्म। वह विद्वानों की वाणी को चुनौती समझता है और चाटुकारों की झूठी वाहवाही को सत्य।

इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी राजा ने विद्वानों को दरकिनार कर चाटुकारों को गले लगाया, उसका साम्राज्य नष्ट हुआ।

• रावण ने विभीषण की नीति नहीं मानी और मंदोदरी की नीतिगत चेतावनी की उपेक्षा की। परिणामस्वरूप सोने की लंका जलकर राख हो गई।

• धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की चाटुकार सभा की बातों में आकर विद्वान विदुर की बातों को अनसुना किया और समस्त कुरुवंश महाभारत के युद्ध में समाप्त हो गया।

 

आज की प्रसंगिकता:

यह स्थिति केवल पुरानी कथाओं तक सीमित नहीं है। आज भी जब किसी संस्थान, संगठन या देश की सत्ता ऐसे हाथों में आ जाए जो केवल हाँ में हाँ मिलाने वालों को पसंद करे और सच्चे विचार रखने वालों को दण्डित करे, तो वहाँ विकास नहीं, विनाश होता है।

ठग राजा का राज्य उस जलरहित भूमि के समान है जिसमें चाटुकारों के पुष्प तो दिखते हैं पर ज्ञान का बीज अंकुरित नहीं होता। एक सच्चे शासक को चाहिए कि वह साहसी, नीतिमान और विद्वान व्यक्तियों को निकट रखे, भले ही वे उसकी आलोचना करें। क्योंकि आलोचना में ही सुधार का बीज छिपा है, और चाटुकारिता में पतन का बीज।

इसलिए कवि की वाणी में यदि तीखापन हो, तो वह क्षणिक होता है; पर चाटुकारों की मधुरता में जो विष होता है, वह सम्पूर्ण राज्य को नष्ट कर देता है। राजा को चाहिए कि वह सत्य से भयभीत न हो, क्योंकि सत्य ही उस सिंहासन की असली ढाल है।

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